हरिशयनी एकदशी का पर्व भगवान विष्णु की योगनिद्रा की अवस्था

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सनातन संस्कृति द्वारा जितने भी पर्व निर्धारित किए गए हैं, उनमें सिर्फ मनुष्य ही नहीं, पूरी सृष्टि के हित का भाव सन्निहित है। इसी कड़ी में आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को सृष्टि के पालनकर्त्ता भगवान विष्णु की योगनिद्रा की अवस्था को हरिशयनी या देवशयनी एकादशी पर्व कहा गया है। पालनकर्त्ता के शयन के कुछ मायने तो हैं ही। निद्रा की आध्यात्मिक महत्ता का उल्लेख मार्कंडेय पुराण के श्रीदुर्गासप्तशती में ‘या देवी सर्वभूतेषु निद्रारूपेण संस्थिता …नमो नम:’ श्लोक में किया गया है।

हरिशयनी एकादशी से शुरू होकर कार्तिक शुक्लपक्ष की एकादशी तक को चातुर्मास कहा गया है। इस अवधि में अपथ्य से पथ्य तक की मंजिल हासिल करने के क्रम में अनेकानेक निषेधों का भी प्रावधान है, जिसमें शारीरिक स्तर और मानसिक स्तर तक के निषेध शामिल हैं। शारीरिक निषेधों में खाद्य-पदार्थों तथा मानसिक स्तर पर काम-क्रोध जैसे विकारों से मुक्ति के लिए तपस्या एवं साधना के मार्ग बताए गए हैं।

देवशयनी से शुरू होकर प्रबोधिनी तक की यात्रा का आशय मनुष्य में व्याप्त अनंत ऊर्जा को जागृत करने का उद्यम भी है। यानी चातुर्मास के दौरान मनुष्य अपनी शक्ति को जागृत करे। उन परिस्थितियों से मुक्त होने का प्रयास करे, जो मनुष्य को देवता बनाने में बाधा बनतीहों। स्कंदपुराण के उत्तरपर्व के 70वें अध्याय में स्पष्ट उल्लेख है कि भगवान विष्णु योगनिद्रा को आमंत्रित करते हैं और उसे अपनी आंखों में स्थापित कर लेते हैं। पुराण की इस कथा से भगवान का शयन में रहकर बोधमय जागरण का संदेश निहित है। चातुर्मास में ऋषि-मुनि, संत-महात्मा भ्रमण छोड़कर आश्रमों में साधना में जुट जाते हैं, जबकि वर्षा ऋतु के चलते कृषक उद्यमी होकर खेती में जुट जाते हैं। खुद भगवान विष्णु के अवतार योगेश्वर श्रीकृष्ण कृषकों के प्रतिनिधि हैं।

वर्षा-ऋतु के इन दो महीनों में सूर्य कर्क और सिंह लग्न में होता है। पृथ्वी पर भी इसी तरह के हिंसक जीव-जंतुओं के असर को देखते हुए भी मांगलिक कार्यक्रम, यात्राएं स्थगित कर दी जाती हैं। इस तरह ‘अपथ’ को ‘सुपथ’ बनाने हेतु देवशयनी एकादशी के माध्यम से दौड़ती जिंदगी में ठहराव के जरिए नई ऊर्जा ग्रहण करने का यह पर्व है। इसीलिए हर स्तर पर बोधमय जीवन के लिए देवशयनी पर्व की महत्ता को समझना आवश्यक है। चार माह की अवधि में भाद्रपद शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान विष्णु करवट बदलते हैं। यह करवट बदलना शयन को प्रबोधन की दिशा में ले जाना है। भगवान के करवट बदलने के बाद शरद ऋतु की शुरुआत होती है।

उत्सवों का अर्थ ही ‘उत्स’ यानी ऊपर की ओर उठना है। भगवान श्रीकृष्ण का विराट रूप और वामन देव का विराट रूप इसी प्रबोधनशक्ति का उदाहरण है।

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