वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को “अक्षय तृतीया” कहते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार, यह तिथि अपने नाम के अनुरूप स्वयंसिद्ध और हर प्रकार से मंगलदात्री है। ज्योतिष की दृष्टि से महूर्तादि के लिए यह सर्वोत्तमा तिथि मानी गई है। पौराणिक तथ्यों के अनुसार चार युग होते हैं- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग, जिसमें सतयुग और त्रेतायुग का शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन से हुआ है।सृष्टि के अभिवर्धन और अभिरक्षण की दृष्टि से जगन्ननियन्ता ने श्रीहरि ने धर्म की भार्या मूर्ति के गर्भ से नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार लिया, उस दिन भी वैशाख मास की तृतीया ही थी। इस अवतार में ऋषि के रूप में मन-इंद्रिय का संयम करते हुए, बड़ी ही कठिन तपस्या की। इस अवतार के माध्यम से भगवान ने लोक को यह शिक्षा दी, तपस्या के द्वारा मनुष्य जीवन और प्रकृति के रहस्यों को समझकर, लोकहितकारी कार्यों का उत्तम प्रकार से संपादन करता और करवाता है।श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार, अनंतकोटि ब्रह्मांड नायक परमेश्वर श्रीहरि ने अक्षय तृतीया को हयग्रीव अवतार लेकर वेदों की रक्षा की। निरंकुश हो गई राजसत्ता को सद्गति-मति देने के लिए भगवान परशुराम जी के रूप में अवतार लिया।आदिगुरु भगवान शंकारचार्य महाभाग अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान् के श्रीविग्रह को विशालाक्षेत्र में अलकनंदा नदी में स्थित कुंड से बाहर निकालकर श्रीबद्रीनाथजी के श्रीविग्रह में उनकी प्रतिष्ठा की, इसलिए अक्षय तृतीया तिथि को ही श्रीबद्रीनाथ धाम के मंदिर के कपाट जन-सामान्य के दर्शन-पूजनादि हेतु खोल दिए जाते हैं।

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