हैप्पी डॉक्टर डेआज 1 जुलाई राष्ट्रीय डॉक्टर दिवस है। एक दौर था, जब ज्यादातर मां-बाप अपने बच्चे को डॉक्टर बनाने का सपना देखा करते थे। मगर यह सोच अब बदलने लगी है। इस पेशे में जो भविष्य उनको दिखना चाहिए था, वह नहीं दिख रहा। इसकी वजह भी है। भारतीय डॉक्टरों को उचित सुविधाएं नहीं मिल रहीं। अस्पताल, विशेषकर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र खुद बीमार हैं। यह स्थिति तब है, जब स्वास्थ्य किसी भी देश का बुनियाद माना जाता है। यानी, कोई मुल्क तभी तरक्की कर सकता है, जब उसकी आबादी सेहतमंद हो। तो, फिर हम कहां चूक रहे हैं?
दरअसल, बीते कुछ दशकों में स्वास्थ्य के प्रति हमारी प्रतिबद्धता घटी है। तमाम वादों के बावजूद स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद, यानी जीडीपी का बमुश्किल दो फीसदी खर्च हो पा रहा है। पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान जैसे पड़ोसी देशों की तुलना में निस्संदेह हम बेहतर स्थिति में हैं। ‘चिकित्सा पर्यटन’ भी हमारे यहां बढ़ रहा है। रूस तक से मरीज यहां आने लगे हैं, क्योंकि भारत में अस्पतालों की उपचार लागत कम है और मामूली रकम में स्वास्थ्यकर्मी उपलब्ध हो जाते हैं। मगर सिंगापुर, यूरोप या पश्चिमी देशों के बरअक्स हम अब भी पीछे हैं। स्वास्थ्य राज्य का विषय जरूर है, पर 80 फीसदी स्वास्थ्य सेवाएं निजी अस्पताल दे रहे हैं। आलम यह है कि गांवों में भी यदि कोई बीमार पड़ता है, तो वह पहले निजी डॉक्टर के पास जाता है, और फिर इलाज-लागत देखकर सरकारी अस्पताल का रुख करता है।
जाहिर है, देश के स्वास्थ्य ढांचे में सुधार की दरकार है। मांग और आपूर्ति को देखते हुए यह और भी आवश्यक हो जाता है। चूंकि अपने देश का भूगोल काफी बड़ा है। यहां शिक्षा का स्तर अलग-अलग है, लोगों की अपेक्षाएं भिन्न हैं, और मेडिकल कॉलेजों में भी विविधताएं हैं, इसलिए देश के हर कोने तक गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं पहुंच सकें, इसके लिए हमें नए-नए तरीके ईजाद करने होंगे। ऐसा नहीं है कि हमारे डॉक्टरों की योग्यता संदेह के घेरे में है। भारतीय मूल के डॉक्टर विदेश में काफी अच्छा काम कर रहे हैं। यहां तक कि विश्वस्तरीय डॉक्टरों की सूची में शीर्ष पर भारतीय हैं। फिर भी, ‘बेहतर इलाज’ के लिए तमाम लोग देश से बाहर जाते हैं। मैं खुद ऐसे कई डॉक्टरों का जानता हूं, जो भारत लौटकर आए जरूर थे, पर वे फिर विदेश चले गए, क्योंकि उन्हें यहां काम का मन-मुताबिक माहौल नहीं मिला या प्रैक्टिस में जिस ‘नैतिकता’ की दरकार थी, उसका उन्हें अभाव दिखा।
तर्क यह भी दिया जाता है कि भारत में डॉक्टरों की कमी है। मैं ऐसा नहीं मानता। असल में, वे शहरों में केंद्रित हो गए हैं, जिसके कारण गांवों में उनकी मौजूदगी कम दिखती है। हालांकि, अनुपात की बात करें, तो अब जनसंख्या के लिहाज से डॉक्टरों की संख्या अच्छी हो गई है। सिर्फ एलोपैथी में ही डॉक्टर नहीं होते हैं, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति से भी मरीजों को समान आराम मिल रहा है। इसलिए, यदि दोनों को मिला दें, तो प्रति हजार आबादी पर भारत में एक डॉक्टर उपलब्ध है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक एक सुखद स्थिति है।
डॉक्टरों के गांवों में भेजने के लिए तमाम राज्यों ने प्रयास किए हैं। चिकित्सा की पढ़ाई में यह दर्ज है कि इंटर्नशिप के तीन महीने डॉक्टरों को किसी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर जाकर अपनी सेवाएं देनी होंगी। मगर इंटर्न डॉक्टर इससे बचने का प्रयास करते हैं, क्योंकि स्वास्थ्य केंद्र खुद स्वस्थ नहीं हैं। ऐसे कई अध्ययन हैं, जो बताते हैं कि इंटर्न चाहकर भी गांव नहीं जाना चाहते, क्योंकि वहां कई तरह की मुश्किलें उनके सामने आती हैं। विशेषकर, महिला इंटर्न के परिजन सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं। सुदूर इलाकों में अस्पतालों को पर्याप्त बिजली, पानी तक नहीं मिल पाता। फिर, इंटर्न की ट्रेनिंग या सुपरवाइजिंग भी एक बड़ा मसला है। कुल मिलाकर, पूरे ‘इको-सिस्टम’ को बदलना होगा। इसके लिए सरकार और निवेशक, दोनों का सहयोग चाहिए। अगर ऐसा हो सका, तो सुदूर गांवों में भी हम डॉक्टरों की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकते हैं।
इसके साथ-साथ सेहत को लेकर लोगों की सोच भी बदलनी होगी। हम तब तक खुद को बीमार नहीं समझते, जब तक रोग हम पर पूरा हावी नहीं हो जाता। ‘प्रीवेंटिव मेडिसिन’ की संकल्पना अमीर तबकों में भी नहीं है। ऐसे में, जन-जागरूकता ही एकमात्र विकल्प है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
जुगल किशोर, वरिष्ठ जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ
लेटैस्ट न्यूज़ अपडेट पाने हेतु -
👉 वॉट्स्ऐप पर हमारे समाचार ग्रुप से जुड़ें

